राजस्थान की मध्यकालीन न्याय व्यवस्था

परम्परागत न्याय व्यवस्था थी, राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था, सामन्त अपनी जागीर में प्रमुख न्यायाधीश की स्थिति रखता था। इसके अतिरिक्त गाँवों में ग्राम पंचायते होती थी। खालसा क्षेत्र में न्याय का कार्य हाकिमों के द्वारा किया जाता था, जागीर में जागीरदार न्यायाधिकारी होता था।

जातिय पंचायते भी होती थी। छोटी चौरियों और सामाजिक अपराध सम्बन्धित झगड़े जाति पंचायत, ग्राम पंचायत द्वारा सुलझालिये जाते थे, वहाँ नहीं सुलझने पर हाकिम और जागीरदार के न्यायालय में जाते, भूमि विवाद सम्बन्धि त झगड़े भी आवश्यकता पड़ने पर हाकिम और जागीरदार के न्यायालय में जाते थे। बड़े अपराध एवं मृत्यु दण्ड सम्बन्धित विवादों में अन्तिम निर्णय राजा का होता था।

न्याय का आधार परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था थी। मुकदमों का कोई लिखित रिकार्ड नहीं रखा जाता था। गवाही सम्बन्धित कोई पृथक अधिनियम नहीं था।

डॉ. एम.एस. जैन ने लिखा है कि “अपराध को व्यक्ति के विरुद्ध अपराध माना जाता था, समाज के विरुद्ध नहीं। कानून के समक्ष सब बराबर नहीं थे। एक ही अपराध के लिये दण्ड देते समय दोनो अपराधी और जिसके विरुद्ध अपराध किया गया की सामाजिक स्थिति देखकर ही दण्ड दिया जाता था। न्याय व्यवस्था के अनुसार सामन्त को ‘सरणा’ (शरणागत) का अधिकार था, यदि कोई सामन्त की शरण में चला जाय तो उसकी रक्षा करना सामन्त की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता था, कई बार अपराधी भी सामन्त की शरण में चले जाते थे, जिसका समाज और न्याय व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता। मध्यकालीन न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषता न्याय का सस्ता होना और शीघ्र होना था। उस समय दण्डविधान भी कठोर नहीं थे।

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