सौरत का मेला

सौरत का मेला

हमारे समाज में सदियों से मेलों की अनूठी परंपरा रही है। इनके साथ आम जनमानस की गहरी भावात्मक आस्थाएं जुड़ी हुई हैं। आस्था के ये स्थल न केवल लोक जीवन की झांकी प्रस्तुत करते हैं बल्कि समाज को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में भी बांधते हैं। ग्रामीण इलाकों में लगने वाले मेले जहां एक ओर उस क्षेत्र की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक हलचल का प्रमुख केन्द्र होते हैं वहीं आधारभूत दैनिक उपयोगी वस्तुओं के क्रय-विक्रय हेतु ‘ग्रामीण सुपर मार्केट’ का भी काम करते हैं, जहां उपभोक्ताओं को सभी तरह की जरूरी वस्तुएं एक ही स्थान पर उपलब्ध हो जाती हैं। खरीद-फरोख्त के साथ-साथ मौज-मस्ती एवं मनोरंजन का भी माध्यम होते हैं ये मेले।

भीलवाड़ा जिले में स्थित त्रिवेणी संगम पर भी हर वर्ष महाशिवरात्रि पर्व पर एक दिवसीय सौरत का मेला लगता है। वस्तुतः शिवरात्रि का ही अपभ्रंश है सौरत । भीलवाड़ा-कोटा सड़क मार्ग पर करीब 50 किलोमीटर दूर बिगोद व मांडलगढ़ के बीच बनास नदी बहती है। बनास नदी में जिस स्थान पर बेड़च व मेनाली नदी आकर मिलती हैं वह स्थान त्रिवेणी संगम कहलाता है। इसी त्रिवेणी संगम पर शिवरात्रि पर्व पर लगता है सौरत का मेला।

त्रिवेणी संगम पर एक प्राचीन शिव मंदिर तथा छोटे-बड़े अन्य शिवालय एवं देवालय बने हुए हैं। नदी के किनारे स्थित होने से इस प्राचीन शिव मंदिर के गर्भगृह में नदी का पानी शिवलिंग का आचमन करते हुए बहता है। बरसात के मौसम में तो जब नदी में जल प्रवाह तेज होता है तब पूरा शिवलिंग ही जलमग्न हो जाता है। मंदिर के दोनों तरफ नदी तट पर श्रद्धालुओं के लिए स्नान घाट बने हुए हैं साथ ही कुछ धर्मशालाएं भी बनी हुई है।

त्रिवेणी संगम पर स्नान का विशेष महत्व है। कार्तिक व माघ मास में तथा अमावस्या, पूर्णिमा व एकादशी पर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु सामूहिक स्नान करते हैं। यहीं पर बेड़च व मेनाली नदी की जलधाराओं के मध्य भू भाग पर नागेश्वर शिव मंदिर है जहां नाथ संप्रदाय के एक महात्मा की जीवित समाधि भी बनी हुई है। त्रिवेणी संगम पर स्थित शिव मंदिर की पूजा-अर्चना का कार्य भी नाथ सम्प्रदाय के पुरी नामक गुसाई करते हैं जो पास ही स्थित मंडी गुसायान ग्राम में रहते हैं।

त्रिवेणी संगम पर सौरत के मेले में ग्रामीण लोक संस्कृति व जनजीवन की मनमोहक झलक देखने को मिलती है। मेले में लगने वाली अनेक दुकानों, स्टालों के साथ-साथ मनोरंजन के साधन, चकरी-झूले, खानेपीने की वस्तुएं, खेल-तमाशे आदि भी मेलार्थियों को आकर्षित करते है।

मेले में आस-पास के ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में स्त्रीपुरुष, युवक-युवतियां उमंग एवं उत्साह के साथ उन्मुक्त भाव से सजसंवर कर भाग लेते हैं। गांव-घर की सीमाओं में रहने वाली ग्रामीण महिलाओं के लिए यह एक ऐसा स्थान है जहां उनका केवल बाहरी दुनिया से ही नहीं, अपने परायों से भी मिलन होता है। मेले में लोग आपस में मिलते हैं, सुख-दुख की बात करते हैं, पारिवारिक-सामाजिक चर्चाएं करते हैं जिससे आपसी संबंध मजबूत होते हैं।

मेले में जिन विविध वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है उनमें अधिकांश ग्रामीण जनों के दैनिक उपयोग की होती हैं। साज-सिंगार के सामान, पूजा की सामग्री, कपड़े-लत्ते, बर्तन-बासण सब यहीं से खरीदे जाते हैं। न जाने कहां-कहां से तरह-तरह की वस्तुएं बिकने आती हैं और चले आते हैं खरीदने वाले भी। एक ओर जहां गांव के लोग अपनी बनाई एवं उगाई वस्तुएं विक्रय हेतु लाते हैं वहीं दूसरी ओर शहर से भी तरह-तरह की चीजें बिकने को आती है।

त्रिवेणी संगम पर लगने वाले इस सौरत के मेले में ग्रामीण अंचल की सुगंध बसती है, संपूर्ण लोक जीवन इसमें पूरी सक्रियता से सम्मिलित होता है और लोक संस्कृति जीवंत हो उठती है। वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया मगर परम्परा की एक मजबूत डोर आज भी इस मेले को अपने अतीत से अलग नहीं होने देती है। बरसों बीत जाने के बाद आज भी कायम है इसकी वही चिरपरिचित पहचान।

लेखक – श्यामसुंदर जोशी पूर्व संयुक्त निदेशक, सूचना एवं जनसम्पर्क

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